# चमकौर का युद्ध # बैटल ऑफ चमकौर

 

# चमकौर का युद्ध 

         # बैटल ऑफ चमकौर 



ये युद्ध सिखों की वीरता और उनकी प्रति आस्था के लिये माना जाता हैं|1704 के पास मुगलों का शासन चरण पे था वे जबरदस्ती लोगों का धर्म परिवर्तन कर रहे थे | मुगलों के सम्राट औरंगजेब को झटका लगा जब 10 वें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी ने धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया | सिखों के साथ हिन्दुओं के धर्म की रक्षा के लिये वह एक दीवार बन गए |इसके चलते औरंगजेब ने सरहिंद के नबाब वज़ीर खान और बाकी राजाओं को मिला के एक सेना बनाई । जिसमें कुल सैनिकों की संख्या 10 लाख थी ।



गुरु गोविंद सिंह जी महाराज को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिये आनंदपुर साहिब पँजाब भेज दी । वज़ीर खान की फौज ने 6 महीने तक आनंदपुर साहिब की सरहदों को घेर के रखा, जाने की हिम्मत ना कर पाए । उनको लगता था जब उनका राशन-पानी खत्म हो जाएगा तब गुरु जी आत्मसमर्पण कर देंगे । मगर ऐसा कुछ हो ना सका 5-6 दिसम्बर 1704 की रात को गुरु जी अपने सैनिकों के साथ आनंदपुर साहिब से चुप-चाप निकल गए। जल्दी ही मुगल सेना ये बात जान गई, और उनका पीछा करने लगे। गुरु जी उस समय अपने चंद साथियों के साथ सिरसा नदी पार करने वाले थे तभी उन सबका सामना मुगलो की फौज से हो गया, बारिश के चलते सिरसा नदी पूरे बहाब में थी। 



गुरु जी ने आदेश दिया कि जो नदी के उस पार जा सकता है वो जाए बाकी सब मुगल सैनको़ से युध करे,  सैनिक नदी पार करने की कोशिश करने लगे पर नदी के तेज बहाब के चलते वे सब नदी की चपेट में आ गए। वहीं बाकी सैनिकों ने मुगलों से युद्ध करना सही समझा। 'नदी पार करने के बाद गुरु जी के पास उनके दो साहिबजादे भाई अजीत सिंह जी और भाई जुझार सिंह जी के अलावा 40 सिख सूरमा बचे थे। वही दूसरी ओर थी मुगलों की 10 लाख सैनिकों की फौज। साथियों के साथ आगे बड़कर पंजाब में बसे सरहिंद माहार में बसे चमकौर नामक स्थान पहुँचे जहाँ के स्थानिय लोगों ने उनका जमकर स्वागत किया। स्थानिय निवासी बुद्धचन्द ने अपनी कच्चीघड़ी मतलब किलानुमा हवेली गुरुजी को उनके साथियों के साथ ळहरने को दे दी। गुरु जी को हवेली अच्छी लगी, क्योंकि उस हवेली को एक ऊँचे टिले पे बनाया हुआ था। जिसके चारों और समतल मैदान था। उन सबको पता था कि अब उन सबका बचपाना मुश्किल है पर वह हारने की बजाए सारे सिख योद्धा दुश्मनों के आने का इन्तजार करने लगे। गुरु जी ने 40 सिखों को छोटी-छोटी टुकड़ी में बाँट दिया और सभी को बचा हुआ युद्ध का सामान बाँट दिया, और सभी को मोर्चों पर तैनात कर दिया गया सबको पता था मृत्यु निश्चित हैं पर खालसा सैनय का सिधांत था कि शत्रु के समक्ष हथियार नहीं डालते केवल वीरगती प्राप्त करते हैं। गुरुजी ने खुद कच्चीघड़ी के ऊपर मोर्चा संभाला और मुगल सैनिकों की राह देखने लगे । सिरसा नदी का बहाब कम होते मुगलों के घोड़ों की आवाज से पूरा चमकौर गूंजने लगा। मुगलों ने गाँओ वालों पे अत्याचार शुरु कर दिया ताकि गुरुजी का पता चल सके और उन्हें पता चल गया की कुछ सैनिक बचे हैं दिसम्बर 22 1704 दुनिया का अनोखा युद्ध शुरु हो गया, धीमे-धीमे बारीश हो रही थी, साल का सबसे छोटा दिन होने के चलते सूरज भी देर से उगा था, कड़ाके की कँडी हवा चल रही थी लेकिन गरम जोशी थी तो कच्चीहवेली में आश्रय लिये गुरुदेवजी के योद्धाओं के दिलों मे। उधर वज़ीर खान ने सुबह ही मुनादी (घोषणा) करवा दी अगर गुरुदेव जी अपने आप को और उनके साथियों सहित आत्मसमर्पण करे तो उनकी जान बकशी जा सकती है इस मुनादी के जबाब में गुरुजी ने मुगलों पर तीरों की बौछार कर दी । इस चीज की उमीद वज़ीर खान ने सपने में भी नहीं करी थी इस जबाब के चलते वह आग बबूला हो रहा था उसके सैनिक मरते जा रहे थे । वज़ीर खान को लगा किसी ने गलत सूचना दे दी है क्योंकि 40 लोगों की सेना इस तरह का जबाब नहीं दे सकती । सिख सैनिक चारों तरफ से घीरे होने के बावजूद बिना डरे दुश्मनों को खत्म करने में लगे हुए थे । मुगल सैनिक सँख्या में जयादा थे तो सिख सैनिकों के तीर जल्दी ही खत्म हो गए, ऐसे में मुगलों को लगा की वह जीत जाएँगे। 



गुरुजी ने रणनीती बनाकर 5–5 सिख सैनिको का जोड़ा मुगलों से लड़ने के लिये किले से बाहर भेजना शुरु कर दिया । पहले जोड़े में भाई हिम्मत सिंह जी और बाकी 4 साथियों के साथ मैदान में उतर गए । गुरुजी कीले के ड्योड़ी से हमला करने लगे, तभी जनरल नाहर खान ने सिढ़ी लगाकर किले पर चढ़ने का प्रयास किया लेकिन गुरुजी ने उसके इस प्रयास को विफल कर दिया वो भी उसको तीर भेद कर जिसके चलते वह चीत हो गया । युद्ध में खूब लोहे से लोहा बजा और फिर पहला जोड़ा शहीद हो गया। गुरुजी ने फिर दूसरा जोड़ा युद्ध के लिये बाहर भेजा देखते ही देखते मुगलों में एक अजीब सा डर बनने लग गया था । किसी को समझ नहीं आ रहा था कि कैसे मात्र 40 सिखों की सेना 10 लाख की फौज से लड़ सकती हैं। इस जथे ने भी मुगलों को पीछे धकेला और उनका भारी नुकसान करते हुए भी खुद भी शहीद हो गए। गुरुजी ने रणनीति बनाई और इस प्रकार 5-5 के जथे युद्ध में भेजने लगे। जब पाँचवा जथा भी शहीद हो गया, और शाम हो गई वजीर खान ने अपने साथी हिदायत खान, असलम खान, खलील खान और बाकी सबको अंदर जाने का आदेश दिया। खबर पाकर सभी सिख सैनिकों ने गुरुजी से आगरह किया की वह अपने पुत्रों सहित किले से चले जाँए, क्योंकि इतना बड़ा हमला रोक पाना मुश्किल था इस पर गुरुजी ने कहा की तुम सारे मेरे साहिबजादे यानी पुत्र  ही तो हो मैं तुम्हें छोड़ के नहीं जा सकता। इस पर उनके बड़े साहिबजादे भाई अजीत सिंह ने गुरुजी से युद्ध में जाने की आज्ञा माँगी। सैकड़ों मुगलों को मारने के बाद भाई अजीत सिंह भी शहीद हो गए और उसके बाद जुझार सिंह ने मोर्चा सँभाला और उन्होंने भी मुगलों को मौत के घाट उतारा और बाद में वह भी शहीद हो गए। उस समय बड़े साहिबजादे अजीत सिंह 18 साल के थे जबकि छोटे साहिबजादे भाई जुझार सिंह की उम्र सिर्फ 14 साल की थी।



 गुरुजी ने दोनो साहिबजादे को अपने सामने मरते देख इश्वर के समक्ष धन्यवाद शुकराने की प्रार्थना की और कहा "तेरा तुझको सौंपते क्या लागे मेरा" मुगल मरे हुए लोगों के शरीर को उथाने के चक्रव्यूह में फस गए और मुगल सेना पीछे हटकर आराम करने लगी इस समय गुरुजी के पास 7 सिख सैनिक बचे हुए थे और वह उनको मिला के 8 की गिनती पूरी होती 

थी । बचे हुए सैनिको ने गुरुजी से दोबारा प्रार्थना की वह इस किले को छोड़ दे और वहाँ से निकल के आगे की रणनीति बना सके। गुरुजी खुद दूसरों को उपदेश देते थे की "जब आउ की आउद निदान बने अति ही रण में तब जूझ मरो" फिर वो कैसे खुद युद्ध से मुँह मोड़ सकते थे गुरुजी ने उत्तर दिया मेरा जीवन मेरे प्यारे सिखों के जीवन से ज्यादा मूल्यवान नहीं हैं, ये कैसे संभव हो सकता है कि मैं तुम्हें युद्ध में छोड़कर अकेले निकल जाउँ मैं रणक्षेत्र को पीठ नहीं दिखा सकता, अब अगले दिन सुबह होते ही वही खुद जथा लेकर युद्ध में उतरेंगे, जिससे सारे सैनिक चिंतित हो गए वह चाहते थे कि गुरुजी किसी भी तरह से बचकर यहाँ से निकल जाएँ ताकि लोगों को भारी सँख्या में जुटाकर दोबारा इकट्ठा करके मुगलों के साथ लड़ सके। सारे सिख सैनिक मन बनाए बैठे थे कि किसी भी तरह गुरुजी को युद्ध में शहीद नहीं होने देना है। वो जानते थे की गुरुदेव जी के द्वारा दी गई शहादत इस समय पँथ के लिये बहुत हानिकारक सिद्ध होगी। आखिरकार भाई दया सिंह जी ने एक योजना सोची और अपना आखिर हथियार अजमाया दोबारा गुरुदेवजी के पास गए और कहने लगे गुरुजी अब गुरु खालसा 5 प्यारे प्रमेशवर रूप में होकर आपको आदेश देते हैं कि कच्चीघडी आप तुरुंत ही त्याग दें और कहीं सुरक्षित स्थान पर चले जाएँ क्योंकि इसी नीति में पँथ खालसा का भला हैं गुरुजी ने 5 प्यारों का आदेश सुनते ही शीश झुका दिया और कहा मैं अब कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता क्योंकि मुझे अब अपने गुरुजी की आज्ञा का पालन करना ही हैं गुरुजी ने उनसे वादा लिया कि वो रणभूमि में अपनी जान लगा देंगे मगर हार नहीं मानेंगे इसके बाद उन्होंने 2 सैनिकों के साथ निकलने का फैसला किया। गुरुजी अपने जैसे दिखने वाले भाई जीवन सिंह को अपना मुकुट और पोशाक पहनाकर डयोढी पर चड़ा दिया ताकि दुश्मन को वहाँ से निकल जाने का पता ना लगे । लाखों-हजारों शवों में बस 35 शव सिख सैनिकों के थे वहीं मुगलों ने किले पर धावा बोल दिया वहाँ मौजूद सिख सैनिकों ने उन्हें करारा जवाब दिया। मुगलों की सेना से लड़ते वक्त बचे 5 सिख सैनिकों को भी वीरगति प्राप्त हुई, इस युद्ध में 40 सिख मुगलों पे इस कदर भारी पड़े की उन्हें इनके सामने सर झुकाना ही पड़ा। मुगल सत्ताधारियों कि ये एक करारी चपत थी कि कश्मीर, लाहौर, दिल्ली और सरहद की सारी मुगल शक्ति 7 महीने आनंदपुर का घेरा डालने के बाबजूद भी गुरु गोविंद सिंह जी को ना पकड़ सकी और ना ही सिखों से अपनी आधीनता सवीकार करा सकी। सरकारी खजाने के लाखों रुपये बेकार हो गए और ना जाने कितने मुगल फौजी मारे गए लेकिन मुगल अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त ना कर सके। 



औरंगजेब ने गुरुजी से पूछा था कि कैसे उन्होंने ये सब किया कैसे 40 सिखों ने 10 लाख मुगल फौजियों को हरा दिया तब गुरु जी ने विजयपत्र द्वारा मुगल शासक औरंगजेब को लिखा था, कि उनका 1-1 सिख सवा लाख के बराबर हैं "चिड़ियाँ नाल में बाज़ लड़ावाँ, गिदरा नु में शेर बनावा सवा लाख से एक लड़ावा ता में गुरु गोविन्द सिंह नाम कहावां" | 

   


 

   

    पँजाब के रुपनगर स्थित स्थान से 15 कि.म. दूर चमकौर नामक स्थान सिख इतिहास की सूरयगाथा का उदाहरण हैं यहाँ पे इतिहासिक गुरुद्वारा कटलगढ़ साहिब स्थापित हैं जो चमकौर में शहीद हुए सिख सैनिकों को समर्पित हैं।

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